मेरे हिस्से न आया
गीला बिछौना, रातों का रोना
न ही आई थपकियां
न लोरी
न पालने की डोरी
न आंसू बहाना
न तुम्हें गोदी में छुपाना
न साज-संभाल करने वाले हाथ
न ही कोई उनींदी रात
अल-सुबह घर से निकलना
कुछ तिनकों की तलाश में
एक नीड़ सहेजने की आस में
ताकि सांझ ढले जब लौटूं
तो गुडि़या, मुनिया और छोटू
सबके चेहरे पर हो खिलखिलाहट
सुनकर मेरे कदमों की आहट
तब मेरा तन भले ही मैला हो
बस! हाथ में खिलौनों से भरा थैला हो
इन पलों में मैं भी
बचपन को जीता हूं
मुझे तो समझनी है
तुम्हारी हर इच्छा
हर बात
लाकर देनी है तुम्हें
हर सौगात
खिलौने, गुब्बारे और मिठाई
कपड़े, किताबें, रोशनाई
तुम्हारा हर स्वप्न
करूं पूरा
नहीं तो मैं रहूंगा
अधूरा
बस! इसी सोच के साथ जीता हूं
मुझे बनाना है घर का हिमालय
बलवान, अडि़ग और अटल
मजबूत कंधे मौन संबल
तुम्हारा आदर्श, जीवन का मान
तुम्हारी जीत पर गर्वित
और हार पर धैर्यवान
मेरे कम शब्द और
गहरी आवाज
अनुशासन, अभिव्यक्ति का राज
वक्त की धूप में पककर
तुम समझ पाओगे
फिर मेरे मन के करीब आओगे
इतना सब होकर भी मैं
भीतर से रीता हूं
क्योंकि मैं एक पिता हूं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें