सोमवार, 20 जून 2011
मैं रोया सारी रात बहुत ......
एक रात हुई बरसात बहुत,
मैं रोया सारी रात बहुत,
हर गम था जमाने का लेकिन,
मैं तन्हा था उस रात बहुत... ... ...
फिर आंख से एक सावन बरसा,
जब सहर हुई तो खयाल आया,
वो बादल कितना तन्हा था,
जो बरसा सारी रात बहुत ... ... ...
शनिवार, 18 जून 2011
सच में थे भगवान पिता
जब तक थे वे साथ हमारे, लगते थे इंसान पिता
जाना ये जब दूर हो गए, सच में थे भगवान पिता।
पल-पल उनकी गोद में पलकर भी हम ये न जान सके
मेरी एक हंसी पर कैसे, होते थे कुर्बान पिता।
बैठ सिरहाने मेरे गुजरी उनकी जाने रातें कितनी
मेरी जान बचाने खातिर, दांव लगाते जान पिता।
सिर पर रखकर हांथ कांपता, भरते आशीषों की झोली
मेरे सौ अपराधों से भी, बनते थे अनजान पिता।
पढ़-लिखकर भी कौन-सा बेटा, बना बुढ़ापे की लाठी ?
घोर स्वार्थी कलयुग में भी, कितने थे नादान पिता।
पीड़ा-दुःख-आंसू-तकलीफें और थकन बूढ़े पांवों की
मेरे नाम नहीं वो लिख गए, जिनसे थे धनवान पिता।
बांट निहारे, रोज निगाहें, लौट के उनके घर आने की
जाने कौन दिशा में ऐसी, कर गए हैं प्रस्थान पिता।
मनोज खरे
19 जून को पितृ दिवस पर पिताओं को समर्पित।
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