
जब तक थे वे साथ हमारे, लगते थे इंसान पिता
जाना ये जब दूर हो गए, सच में थे भगवान पिता।
पल-पल उनकी गोद में पलकर भी हम ये न जान सके
मेरी एक हंसी पर कैसे, होते थे कुर्बान पिता।
बैठ सिरहाने मेरे गुजरी उनकी जाने रातें कितनी
मेरी जान बचाने खातिर, दांव लगाते जान पिता।
सिर पर रखकर हांथ कांपता, भरते आशीषों की झोली
मेरे सौ अपराधों से भी, बनते थे अनजान पिता।
पढ़-लिखकर भी कौन-सा बेटा, बना बुढ़ापे की लाठी ?
घोर स्वार्थी कलयुग में भी, कितने थे नादान पिता।
पीड़ा-दुःख-आंसू-तकलीफें और थकन बूढ़े पांवों की
मेरे नाम नहीं वो लिख गए, जिनसे थे धनवान पिता।
बांट निहारे, रोज निगाहें, लौट के उनके घर आने की
जाने कौन दिशा में ऐसी, कर गए हैं प्रस्थान पिता।
मनोज खरे
19 जून को पितृ दिवस पर पिताओं को समर्पित।
2 टिप्पणियां:
पितृ दिवस पर हमारी भी बधाईयां
पितृ दिवस पर आपके द्वारा की गयी इस सुंदर प्रस्तुति की चर्चा ब्लॉग4वार्ता में की गयी है !!
एक टिप्पणी भेजें